Friday, June 10, 2011

भूख

सिंहासन है चूसता,
अब जनता का खून...
जनता भूखों मर रही,
आलू खाती भून...
आलू खाती भून,
ख़तम सब राशन कोटा...
देख तेल की धार,
दाल-आटे में टोटा...
कह प्रदीप बेफिक्र है पूंजीवादी शासन...
त्राहि-त्राहि मच रही,
किन्तु सोता सिंहासन...

सिंहासन तेरा अगर,
भूखा सोता लाल...
कर लेता एहसास,
यदि होता तू बेहाल...
होता तू बेहाल,
भूख हाय कैसी होती...
बच्चों का मुंह देख,
रूह तेरी भी रोती...
कह प्रदीप मत भरो,
तोंद में सारा राशन...
भूख करेगी क्रांति,
बचेगा क्या सिंहासन...

सिंहासन बेफिक्र है,
रहा शांत सब दीख...
महंगाई की मार से,
नहीं निकलती चीख...
नहीं निकलती चीख,
भूख से गृहिणी आकुल...
कंकर रही उबाल,
लाडले सो गये व्याकुल...
कह प्रदीप कविराय,
हाय! यह कैसा शासन...
विलासिता में मस्त,
भ्रष्ट अब भी सिंहासन...

Friday, June 18, 2010

क्रिकेट को दौलत की कैद में मत डालिए

मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर के 37वें जन्मदिन पर किसी भी क्रिकेटप्रेमी का भावुक हो जाना लाजमी है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने पेशे को नई ऊंचाइयां देते हैं और लोग उनमें नए युग का प्रतिबिंब देखने लगते हैं। सचिन और अमिताभ ऐसी ही शख्सियत हैं। जाहिर है जब पूरा देश यह कामना कर रहा है कि सचिन लंबी उम्र जीयें और अपने कीर्तिमानों के पहाड़ को इसी तरह बढ़ाते रहें, तब क्रिकेट की दशा, दिशा के बारे में भी कई सवाल मन में उठते हैं। आईपीएल को लेकर जो कुछ भी हो रहा है वह किसी भी खेल को पूरी तरह झकझोरता है।
यह ठीक है, हम बाजारू अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं। यह ऐसा दौर है, जहां हर चीज दौलत के तराजू पर तौली जाती है और इसीलिए नैतिकता को भी प्रबंधकीय फंडे में ढाला जा रहा है। जहां जुनून का मतलब अपनी निजी सफलता है और जितना हो सके उतना चुराकर इन्कम टैक्स चुका देने में देशभक्‍ति। आज कोई भी खिलाड़ी यह नहीं कहता कि शतक मारते समय मेरे दिमाग में देश घूम रहा था। वह गए शुक्रवार की शाम थी। मौका था, हिन्दुस्तान टाइम्स के चंडीगढ़ संस्करण की दसवीं सालगिरह का। तमाम लोग खुशी के इस मौके पर इकठ्ठा थे। वहीं उड़नसिख मिल्खा सिंह मिल गए। मैंने उनसे कहा कि आप बचपन से हमारे हीरो रहे हैं। कुछ अपने बारे में बताइए। सहज भाव से वे बोले कि 1954 में दिल्ली में मेरा मुकाबला पाकिस्तानी धावक से था। मैं उस समय नंगे पैर दौड़ता था, क्योंकि आजकल के जैसे दौड़ने वाले जूते देश में ईजाद नहीं हुए थे और यदि उपलब्ध थे भी, तो उनकी आमद हिन्दुस्तान में नहीं थी। खैर मैंने उस रेसर को ट्रैक पर पछाड़ दिया। बाद में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मुझे पुरस्कार दिया, तब उस समय उन्हें बताया गया कि यह वही लड़का है जिसने पाकिस्तानी धावक को ‘पीट’ दिया था। पंडित जी ने मेरी पीठ थपथपाई। हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी वह फोटो आज भी मेरे पास है।
मिल्खा सिंह ठीक से रहते हैं, परंतु उनका शुमार धनकुबेरों में नहीं होता। मुझे नहीं लगता कि इससे उन्हें कोई फर्क पड़ता है। 75 वर्ष की उम्र में वे अपने से तीन दशक छोटे लोगों से भी ज्यादा चुस्त-दुरुस्त नजर आते हैं। उनके चेहरे पर पसरा संतोष और देह में दौड़ता देशप्रेम बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है। बहुत साल पहले जब मैं बच्चा था, तब एक बार वीनू मांकड़ को देखा था। वे रिटायर हो चुके थे और उनके बेटे अशोक मैदान में थे। कहा जाता था कि वीनू की माली हालत ठीक नहीं, पर उनके चेहरे पर मैंने कोई असंतोष नहीं पाया था। उस समय के खिलाड़ी उन सैनिकों की तरह हुआ करते थे जो देश की आन की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे और बदले में आत्मसंतोष के सहारे शेष जिंदगी गुजार देने को तैयार रहते थे।
सुनील गावस्कर की अगुवाई में जब क्रिकेट को पेशेवर जामा पहनाने की बहस चली थी, तब भी कहा गया था कि खेल रोमांच के लिए है, रगों में दौड़ती सनसनी के लिए है, देश और समाज की शान के लिए है, पैसे के लिए तो कतई नहीं। शुक्र है कि उस समय उदारीकरण और आर्थिक सुधारों की आंधी नहीं चली थी। कैरी पैकर का ख्वाब भी जमींदोज हो गया था। 13 मई 1977 को उन्होंने जिस कैरी पैकर वर्ल्ड सीरिज का एलान किया था, वह 2 साल में दफन हो गई। लगने लगा था कि क्रिकेट की पवित्रता कम से कम पैसे से भंग नहीं होगी। पर यह सिर्फ एक हसीन ख्वाब था। सोवियत संघ के पतन के बाद पूरी दुनिया में अमीर बनने की अजब सी चाहत पैदा हो गई है। अब हिट और फिट का फार्मूला किसी भी जज्बे से ज्यादा मायने रखता है। पर इसने क्या हमारे ऊपर क्षणभंगुरता का तत्व नहीं थोप दिया है?
जरा सोचिए। अब कोई गायिका लता मंगेशकर क्यों नहीं होती? मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश जैसी अनश्वरता अब किसी गायक में क्यों नहीं है? चेतन भगत एक उपन्यास लिखते हैं और छा जाते हैं। अरुंधती राय को विदेशी जमीन से मिला एक ईनाम कहां से कहां पहुंचा देता है। उनके लेखन में मौजूदा काल की कितनी भी पहचान भले ही अभिव्यक्त होती हो पर प्रेमचंद जैसा सामाजिक यथार्थ कहां बिला गया है? क्या वजह है कि गोस्वामी तुलसीदास शताब्दियां बीत जाने के बावजूद अभी तक हिंदी के सबसे लोकप्रिय कवि हैं। क्या वजह है कि कोई परदेशी अगर हमसे देश के सबसे बड़े साहित्यकार का नाम पूछता है तो हम चुप हो जाते हैं।
भारतीय संगीत के साधक अब किसी मेहर की देवी के चरणों में नहीं बैठते। दरगाहों से कव्वालों का नाता टूट गया है और मंदिरों में कोई कला विकसित नहीं होती। हर तरफ बाजार है। ऐसा लगता है जैसे मन की हर रचनात्मक धड़कन पर किसी दुकान का हक है। इसीलिए आज कोई क्रिकेटर या खिलाड़ी राष्ट्रीय गौरव के रूप में जाना और बूझा नहीं जाता। धोनी महान खिलाड़ी हैं पर उनकी पहचान देश की तरुणाई से नहीं, उन उत्पादों से होती है जिनके लिए वे मॉडलिंग करते हैं। एमटीवी पर दिखाए गए एक शो को यदि सही मान लें तो धोनी की सालाना आमदनी 110 करोड़ रु., युवराज की 80 करोड़ रु. और द्रविड़ की 22 करोड़ रु. है। यह वह देश है जहां प्रतिव्यक्‍ति सालाना आय अभी भी 33,500 रु. है।
क्रिकेट ने अपनी प्रभुता को बरकरार रखा है। अंग्रेजों का दिया हुआ औपनिवेशिक खेल आज भी प्रभुवर्ग की याद दिलाता है। यह ठीक है कि आज तमाम क्रिकेटर गलियों में खेलकर यहां तक पहुंचे हैं। पर जहां पहुंचे हैं वहां से नीचे देखना उन्हें गवारा नहीं है। करोड़ों कमाने वाले ये लोग अपनी आय का आधा प्रतिशत भी क्रिकेट के कद को ऊंचा बढ़ाने पर खर्च नहीं कर रहे हैं। बीसीसीआई की कुल आय हिन्दुस्तान की जीडीपी के मुकाबले दसियों गुना तेजी से बढ़ी है। देश में क्रिकेट को संचालित करने वाली यह संस्था 2007-08 में 1000.41 करोड़ का वजूद रखती थी। 2005-06 में इसकी हैसियत सिर्फ 33 करोड़ रु. थी। मतलब साफ है कि देश का सबसे तेजी से उभरते कमाऊ उद्योगों में क्रिकेट भी है। आईपीएल इसकी जरूरतें पूरी करने का नया जरिया है।
कहने को हम कह सकते हैं कि आईपीएल ने क्रिकेट को जिस तेजी से बढ़ाया है उससे दुनिया सिमट गई है और देशों की सीमाएं टूट गई हैं। पर यह काम तो हथियारों और नशे के सौदागरों ने भी किया है। आतंकवादियों के संगठित गिरोह भी यही कर रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार हिन्दुस्तान को तोड़ने में जुटे माओवादियों का सालाना बजट 16,000 करोड़ रु. है जो हर साल बढ़ रहा है।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि कोई भी खेल या कला यदि समाज के निचले तबकों से नाता तोड़ लेती है तो वह खत्म हो जाती है। कभी-कभी तो साम्राज्य भी इस कुटेव की चपेट में आ गए हैं। रोमन साम्राज्य का झंडा कहां नहीं फहराता था। परंतु उन्होंने बहादुरी को खेल से और खेल को कारोबार से जोड़ दिया। ग्लैडिएटर यानी लड़ाके, धनिकों की मांग पर लड़ाए जाने लगे। नौजवानों का लहू देश से ज्यादा कुछ भटके रईसों की लिप्सा के लिए बहने लगा। इसके बाद जो हुआ उसे सब जानते हैं। रोम अब अपने ही खंडहरों पर आंसू बहाता है। क्या आज का क्रिकेट भी भटक नहीं रहा?
इसमें माफिया हैं, राजनेता हैं, अभिनेता हैं, चीयर लीडर्स हैं और बाजार के कारीगर हैं। सचिन के जन्मदिन पर खुश होने के साथ ही यह आशंका भी सताती है कि कहीं मास्टर ब्लास्टर इस सदी के सही अर्थों में अंतिम ‘हिन्दुस्तानी’ क्रिकेटर होकर न रह जाएं। वे बेदाग रहे हैं पर इस समय पिच पर खेल रहे हैं। कोई अन्य उन जैसा नहीं है।

Friday, March 5, 2010

शर्म आती है... सचमुच, शर्म आती है...

क्या कहूं... जब देश का कृषि, खाद्य आपूर्ति मंत्री किसी ठाकरे के दरबार पर जाकर मत्था टेक आता है... न न... किसानों की आत्महत्या या महंगाई रोकने के लिए नहीं (यह वे कर भी नहीं सकते), बल्कि आईपीएल में विदेशी खिलाड़ी खेल सकें, इसलिए... शर्म आती है...एक ऐसे शहर में रहता हूं, जहां सरकार नाम की शायद कोई चीज़ नहीं... एक का ही राज है - ठाकरे... क्या आम, क्या ख़ास, सबको अमन से रहने, काम करने के लिए ठाकरे का ठप्पा चाहिए, वरना देश का एक तथाकथित जिम्मेदार मंत्री, पुलिस कमिश्नर या अपनी पार्टी के गृहमंत्री तक फरियाद नहीं ले जाता... शर्म आती है...समझ नहीं आता, आखिर ऐसा क्यों है.... हर इजाज़त को 'मातोश्री' तक एड़ियां रगड़ने की दरकार क्यों होती है... क्या शर्मनाक बयान है - पहले बाल ठाकरे को प्रेजेंटेशन दिया जाएगा, और फिर अगर उन्हें अच्छा लगा, तब मुंबई में आईपीएल मैच खेले जाएंगे... शर्म आती है...कौन हैं ठाकरे... आज तक उन्होंने कोई नगर निगम चुनाव तक नहीं लड़ा... वह चुने हुए जनप्रतिनिधि नहीं... फिर उन्हें इतनी इज्ज़त बख्शने का मतलब... क्या समाज और देश के लिए उन्होंने कोई ऐसा काम कर दिया है, जिसकी हमें भनक तक नहीं...उस इंडस्ट्री की फिल्में देखता हूं, जिसमें शायद रीढ़ नहीं है... विदेश में बैठकर हीरो-सरीखे बयान देते हैं, लेकिन देश में आते हैं, तो नोट गंवा देने का डर तथाकथित बादशाह को भी घुटने टेकने के लिए मजबूर कर देता है... क्यों हर बार वह 'माई नेम इज़ खान' की दुहाई देता नज़र आने लगता है... अरे, हद है... धर्म की आड़ आप तब ही लेते हैं, जब फंसे होते हैं... याद रखिए खान साहब, जिन लोगों ने आपको सिर-आंखों पर बिठाया है, वे किसी एक धर्म या मज़हब से ताल्लुक नहीं रखते... फिर आपकी बातों में इतनी संकीर्णता क्यों आ जाती है...?अरे, जो बातें सच हैं... जो बातें कहने का माद्दा रखते हो, उन पर टिकने की कूवत क्यों नहीं है आपमें... क्यों यह कहना पड़ता है कि 'मातोश्री' में मत्था टेकने से गुरेज़ नहीं... क्यों उस शख्स के सामने सिर झुकाना चाहते हैं, जिस पर दंगे भड़काने का इल्ज़ाम है... जो खुद को हिन्दू धर्म और उसके रीति-रिवाजों का पुरोधा कहता है, मराठी भाषा का खेवनहार बनता है, लेकिन खुद इस बात से भी इठलाता है कि माइकल जैक्सन ने उसके घर के गुसलखाने का इस्तेमाल किया... हमेशा विदेशी शराब पीता है, उसके बच्चे-पोते अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते हैं, लेकिन आम मराठी को वह महज़ इसलिए पीठ में छुरा घोंपने वाला करार दे देता है, क्योंकि उसकी पार्टी चुनाव में हार जाती है...कोई तो पूछे, ठाकरे सीनियर, जूनियर, रूठे कोई भी हों, शहर या देश को बनाने में उनकी क्या भूमिका है... फिर भी सब उनके सामने नतमस्तक होते हैं... अगर ये शख्स इतने ताकतवर हैं, वाकई 'टाइगर' हैं, तो फिर क्यों शहर आतंकी हमलों का शिकार होता है, क्यों इनके रहते आतंकी शहर को लहुलूहान कर जाते हैं, ये लोग रोक क्यों नहीं देते शहर में हो रही गुंडागर्दी को... ऐसे किसी वक्त में कहां रहती है शिवसेना और कहां रहते हैं इनके शिवसैनिक... क्या ठाकरे की बहादुरी सिर्फ पिच खोदने, वैलेटाइन्स डे पर बच्चों को मारने पीटने, और फिल्मों के पोस्टर फाड़ने में ही है...?केन्द्र से युवराज आते हैं, कुछ बोलते हैं... लेकिन उनके मंत्रियों में इतनी हिम्मत भी नहीं जुटती, कि इस गुंडागर्दी के खिलाफ मुंह खोलें... और बोलकर नहीं, करके बताएं, जतलाएं - कि मुंबई किसी ठाकरे की जागीर नहीं...अगर ऐसा नहीं होगा - तो वाकई इस शहर में रहने में, और बॉलीवुड की फिल्में देखने में कम से कम मुझे तो शर्म आएगी... आप अपना तय कर लीजिए... कम से कम अपने चुने हुए नुमाइंदों से पूछिए तो सही... जिन लोगों को आप सत्ता नहीं देते, उनके घर जाकर वे साष्टांग क्यों करते हैं... एक बार उनसे पूछकर देखिए - क्या उनको इस मौकापरस्ती, और इस डर पर शर्म नहीं आती...

सूरज हैरान था, कहां गईं किलकारियां

इलाहाबाद [हरिशंकर मिश्र]। कुंडा तहसील के 33 गांवों में शुक्रवार की सुबह जब सूरज निकला तो उदास था। इन गांवों से रोज उठने वाली किलकारियां गायब थीं। गांव के गलियारे सूने थे और जिंदगी का नामलेवा तक न नजर आ रहा था। न घरों के चूल्हे से धुंआ उठता दिखाई दिया न चरने के लिए जानवर निकाले गये। हर गांव में किसी न किसी घर से मातम के सुर थे जिसे सुनकर किसी का भी कलेजा फट सकता था।
मोहमिदपुर में पार्वती के घर सुबह से ही पूरे गांव का जमावड़ा था। इस घर पर ईश्वर ने वज्रपात किया था। पार्वती की तो मौत हुई ही थी। साथ में दस साल का बेटा अभय भी मौत की भेंट हुआ था। इसी घर की बेटी थी कलावती जिसकी शादी झाझामऊ में हुई थी। वह अपने आठ साल के बेटे के साथ मायके आयी थी। दैव की मार, इन दोनों की भी मौत इस हादसे में हो गई। एक ही घर से चार-चार लाशें देख लोगों की छाती फटी जाती थी। अभय और सचिन दोनों एक ही स्कूल में कक्षा तीन के छात्र थे। साथ ही खेलते-कूदते थे और पूरे गांव की आंखों का तारा थे। इसी तरह बरई गांव में मथुरा के घर पर मातम छाया हुआ था। यहां दो बहनों 11 साल की सरिता और 12 साल की सविता की मौत हुई थी। इन दोनों बहनों में बड़ा अपनापन था। इनकी अठखेलियों का जगह घर में सियापा छाया हुआ था। सबसे बुरा हाल तो मवई गांव के लोगों का था। इस गांव के निवासी राम बहादुर निर्मल ने तीन बेटियां खोयी थीं। राम बहादुर की हालत विक्षिप्तों जैसी थी। एक बड़ी बेटी मंजू के साथ छह साल की मुस्कान और बारह साल की रवीना के बिना कैसे पूरा परिवार रहेगा, यह चिंता सबको साल रही थी। राम बहादुर के भाई का लड़का बलबीर भी हादसे का शिकार हो गया। एक ही घर में कफन में लिपटी चार लाशें पड़ी थीं। महिलाएं पछाड़ खाकर गिर पड़ रही थीं। दोपहर बाद जब बच्चों को अंत्येष्टि के लिए ले जाया गया तो पूरा गांव की आंखों से झर-झर आंसू गिर रहे थे। इटौरा गांव में भी शोकगीत चल रहा था। यहां बारह साल की प्रीति और छह साल के सुभाष की मौत ने सबके चेहरे से आभा छीन ली थी। शैलवारा गांव की लक्ष्मी भी हंसते-खेलते प्रसाद लेने रवाना हुई थी। अब उसका चेहरा भी गांववाले नहीं देख पायेंगे। इसी तरह खेमई पुर गांव की सुगना का चेहरा फूल जैसा था। वह लोगों के पैरों तले कुचल गया। इस गांव के लोग उसे गठरी में भरकर लाये। गांव के पास ही जब उसकी अंत्येष्टि की गई तो परिजनों के रुदन से आकाश दहल उठा।

Monday, September 7, 2009

ग़ज़ल

कुछ अधूरी हसरतें अश्के-रवाँ में बह गए
क्या कहें इस दिल की हालत, शिद्दते-ग़म सह गए
गुफ़तगू में फूल झड़ते थे किसी के होंठ से
याद उनकी ख़ार बन, दिल में चुभो के रह गए
जब मिले हम से कभी, इक अजनबी की ही तरह
पर निगाहों से मेरे दिल की कहानी कह गए
दिल के आईने में उसका, सिर्फ़ उसका अक्स था
शीशा-ए-दिल तोड़ डाला, ये सितम भी सह गए
दो क़दम ही दूर थे, मंज़िल को जाने क्या हुआ
फ़ासले बढ़ते गए, नक़्शे-क़दम ही रह गए
ख़्वाब में दीदार हो जाता तेरी तस्वीर का
नींद अब आती नहीं, ख़्वाबी-महल भी ढह गए
दूसरी ग़ज़ल-
भूल कर ना भूल पाए, वो भुलाना याद है
पास आए, फिर बिछुड़ कर दूर जाना याद है
हाथ ज़ख़्मी हो गए, इक फूल पाने के लिए
प्यार से फिर फूल बालों में सजाना याद है
ग़म लिए दर्दे-शमां जलती रही बुझती रही
रौशनी के नाम पर दिल को जलाना याद है
सूने दिल में गूँजती थी, मद भरी मीठी सदा
धड़कनें जो गा रही थीं, वो तराना याद है
ज़िन्दगी भी छाँव में जलती रही यादें लिए
आग दिल की आँसुओं से ही बुझाना याद है
रह गया क्या देखना, बीते सुनहरे ख़्वाब को
होंठ में आँचल दबा कर मुसकुराना याद है
जब मिले मुझ से मगर इक अजनबी की ही तरह
अब उमीदे-पुरसिशे-ग़म को भुलाना याद है

Thursday, August 27, 2009

ख्वाब और सच्चाई

एक बार रात को हम सैर पर निकल पडे,
उस सैर में हम जिंदगी से आगे चल पड़े
रस्ते में हमें एक इंसान मिला,
सुंदर और जवान मिला
हमने पूछा,
कौन हो तुम,
वो बोला-
तुम मुझे नही जानते ,

मैं ही लोगो की जिंदगी को रंगीन बनता हु,
बैठे-बैठे ही उन्हें दूर-दराज की सैर करता हु
मेरी वजह से ही
गरीबी और अमीरी के बीच की खाई दूर होती है ,
मेरी वजह से ही जिंदगी भरपूर होती ही,
मेरी वजह से ही गरीब आदमी सपने सजोता है ,
और भूखा रहने के बावजूद चैन से सोता है,
मेरी वजह से ही जिंदगी में रुबाब होता है
असल में मेरा नाम ही ख्वाब होता है
मैंने कहा-

तुम ही ख्वाब हो ,
जो आदमी को पागल बनता है ,
और गरीब आदमी को भी भरपेट खाना मिलने का झुटा सपना दिखलाता है

ख्वाब बोला मैं झूठा ही सही,

पर तुम्हारी सच्चाई से तो अच्छा हु

तुम्हारी सच्चाई-

गरीबो और अमीरों के बीच अन्तर बनती है ,

जबकि मैं गरीबो और अमीरों को जोड़ता हु ,

झूठे ख्वाब ही दिखलाता हु ,

पर गरीबो के चेहरे पर कुछ पल के लिए ही सही ,

हसी तो छोड़ता हु

Thursday, August 20, 2009

जीवन का सार

पत्ते पर बैठी जल की एक बूंद नीचे बहती नदी के जल को देख रही थी। हहर-हहर करता जल वेग से आगे बढता जा रहा था। उछलती तरंगों से निकलती अनेक बूंदे खेलती हंसती नाचती पुन: नदी के जल में विलीन हो जाती। पत्ते पर बैठी बूंद उदास थी, " ओह, मैं कितनी अकेली हूं ... कोई मेरे साथ खेलता नहीं .... मेरी सुघ नहीं लेता। "
हवा ने उसका रोना सुना। उस पर तरस आया। उसने पत्ते के हिला दिया कि बूंद फिलसकर नदी में जा मिले। बूंद अकर्मण्य थी। वह कसकर पत्ते से चिपक गई, " मुझे गिरने से डर लगता है। वैसे भी नदी के जल में मिलकर अपना अस्तित्व खो बैठूंगी। " नदी जल की बूंद आगे बढ हुई सागर में विलीन होकर शाश्वत में मिल गई। पत्ते पर की बूंद वहीं बैठी-बैठी सूखकर समाप्त हो गई। बूंद की सबसे बडी भूल थी कि वह स्वयं को अपने जन्मदाता जल से अलग मान बैठी। वह भूल गई कि उसका अस्तित्व जल से है। दूसरी भूल थी अर्कमण्यता। वह कर्म करने से डरती रही, अत: नष्ट हो गयी। बूंद और जल का सम्बन्घ आत्मा-परमात्मा के सम्बन्घ के समान है।
इतने बडे विश्व मे बच्चा अकेला आता है। परिवार, समाज में अन्य लोगों से मिल-जुलकर, सीखकर गुवों का विकास करते हुए उन सबका हिस्सा बन जाता है। सबके बीच रहकर भी वह अपना अलग अस्तित्व बनाये रखता है। निरन्तर अच्छे कार्य करता हुआपरमात्मा में विलीन हो जाता है, नदी की बूंदों की तरह।
कृष्ण ने कहा है कि कर्म करना मनुष्य का घर्म है। कर्म किसी इच्छा या उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। शास्त्रों में कहा गया है," ह्रदय से इच्छा रूपी विकार हो निकाल दो। " यह कथन भ्रम की स्थिति पैदा करता है क्योंकि इच्छा रहित ह्रदय सूखे मरूस्थल समान है, जिसमें कर्म रूपी पौघे कीएक भी कोपल नहीं खिलती। इस भ्रम का भी कृष्ण ने गीता में स्पष्ट शब्दों में तोडा है ... मनुष्य! तू कर्म कर। कर्म अपरिहार्य है। तेरे अघिकार में सिर्फ कर्म करना है। उसका फल मिलेगा या नहीं, कैसा फल मिलेगा, इसका निर्णय तेरे अघिकार में नहीं है।
इस कथन की सच्चाई प्रत्येक मनुष्य अनुभव करता है। पुरे मनोयोग से व्यापार शुरू किया, पर व्यापार में सफलता नहीं मिली, मेहनत से पढाई की लेकिन अपेक्षित अंक नही आए। ऎसे अनेक उदाहरण मिलते है। अज्ञानी व्यक्ति अपने अतिरिक्त और सबको दोष देने लगता है। ज्ञानी समझ जाता है, " फल प्राप्ति मेरे अघिकार में नहीं है। " अकर्मण्य व्यक्ति का तर्क उभरता है, " फल मेरे वश में नहीं, तो कर्म क्यों करू। जो प्रारंभ में होगा, मिल जायेगा। " यह असंतगत तर्क है। कर्म मनुष्य का घर्म है। भूखे के सामने खाना रखा है। वह हाथ बढा, निवाला तोडकर मुंह में डालने का कर्म नहीं करता कि किस्मत में होगा, तो खिला देगा। वह भूल गया कि किस्मत में भोजन प्राप्ति लिखी थी। खाने का कर्म तो स्वयं ही करना होगा।
इच्छायें जागकर मनुष्य को कर्म करने क लिए पे्ररित करती है। इच्छा नहीं, तो कर्म नहीं। इच्छाविहीन और विरक्ति, दोनों भाव मनुष्य के भीतर कर्म न करने की सुस्ती पैदा करती है।
दिवाकर के पिता के पास अपार घन-दौलत थी। उसके अक्सर पिता को यह कहते सुना कि उसके पास जितनी दौलत है, आने वाली सात पुश्तें काम न करें, बैठकर खा सकती है। उसके मन में पढ-लिखकर कुछ बनकर, घनार्जन की इच्छा ही खत्म हो गई, जीने के लिए घन चाहिये। पिता के पास इतना घन है ही। मैं क्यों पढे। खाली बैठ समय कैसे गुजरे ? आस-पास सब लोग पढाई में लगे रहते है। अकेला खेले कैसे ? पढाई छोड दी। अच्छी मनोरंजन किताब कैसे बढे ? खाली बैठे टीवी भी कब तक देखे ? पेट में भूख जागे, उससे पहले ही सामने तरह-तरह के व्यंजन परोस दिये जाते। उसकी खाने में अरूचि हो गई। इच्छाविहीन हो वह अर्कमण्य बना। अपने आपमें छटपटाता छोटी उम्र में ही मर गया। इसलिये नदी की बूंदों सरीखा जीवन जियो। नदी जल में मिलकर भी अपना अस्तित्व बचा रखो। जब लहरें उठकर गिरतीं, बूंदे अलग-अलग अठखेलियां करती, आनन्द सहसूस करती, फिर नदी के जल में मिल जाती। अच्छे कर्मो द्वारा अपनी अलग पहचान बनाकर ब्रह्य में लीन होने पर दुनिया याद भी रखती है। मोक्ष भी प्राप्त होता है।